धार्मिक साहित्य की ध्यान देने योग्य बातें:-सभी धर्म-मतों के मानने वालों के विश्वास और उनके आचार विचार की जानकारी सबके लिए एक ही मंच पर उपलब्ध कराना इस मंच का मक़सद है ताकि सभी लोग आपस में एक दूसरे के बारे में जान सकें। जब लोग एक दूसरे के बारे में जानेंगे तो एक दूसरे की भावनाओं को समझने में भी आसानी होगी और उनके साथ सद्भावनापूर्ण व्यवहार भी किया जा सकेगा। इसी के साथ उन बातों से भी बचा जा सकेगा, जिनके कारण दूसरों की भावनाएं आहत होती हैं और समाज में नफ़रतें फैलती हैं। नफ़रत को मिटाकर मुहब्बत के फूल इस गुलिस्तां में खिलाने के लिए ही यह मंच बनाया गया है। यहां हरेक आदमी अपने धार्मिक-दार्शनिक मत को व्यक्त कर सकता है और पूछने वाला भी प्रश्न पूछ सकता है लेकिन यह सारा कहना-सुनना सभ्यता के दायरे में ही होना चाहिए। इस मंच का मक़सद शास्त्रार्थ और बहस करना नहीं है। इसलिए यहां जीत हार का भी कोई सवाल नहीं है। किसी भी सवाल का जवाब देने के लिए पोस्ट लेखक बाध्य नहीं है। यह साहित्यकारों की एक सम्मानित सभा है, जिसमें वे अपने अनुभव साझा कर रहे हैं, जिनसे सभी का सहमत होना ज़रूरी नहीं है। बहरहाल सबसे प्रेम करना हम सबके लिए ज़रूर लाज़िमी है। इंसानियत के सभी उत्कृष्ट गुणों को जगाने और बढ़ाने के लिए ही इस धार्मिक साहित्य का सृजन किया जा रहा है। यहां केवल वही साहित्य संकलित किया जाएगा जो सीधे या परोक्ष, किसी भी रूप में इंसान को एक अच्छा इंसान बनाकर समाज के लिए उपयोगी बना सके। जो इस शर्त को पूरा न करता हो, उस साहित्य के लिए यह मंच नहीं है।

शनिवार, 7 जून 2014

हम सब ईश्वर की त्रिज्याएं हैं-स्वामी विवेकानंद

हम सब ईश्वर की त्रिज्याएं हैं
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि सत्य तो एक ही है, बस हम उसे अपने-अपने नजरिये से भिन्न बना देते हैं। यह बात यदि हमारी समझ में आ जाए, तो सारे मतभेद ही सुलझ जाएं। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..
वर्तमान अतीत का ही फल है। इस कारण हममें से प्रत्येक की एक विशेष गति, एक विशेष प्रवृत्ति होती है और इसीलिए प्रत्येक को अपना मार्ग स्वयं निर्धारित करना पड़ता है। यह मार्ग या तरीका, जो हमारी प्रवृत्ति के अनुकूल है, हमारा 'इष्ट मार्ग' कहलाता है। यही इष्ट का तत्व है। जो मार्ग हमारा है, उसे ही हम अपना 'इष्ट' कहते हैं।
उदाहरणार्थ, किसी मनुष्य की ईश्वर के प्रति यह धारणा है कि वह विश्व का सर्वशक्तिमान शासक है। संभवत: उस मनुष्य की प्रकृति उसी प्रकार की है। वह एक अहंकारी मनुष्य है और सब पर शासन करना चाहता है। अत: वह स्वभावत: ईश्वर को सर्वशक्ति संपन्न शासक मानता है। दूसरा मनुष्य, जो शायद स्कूल मास्टर है और कठोर स्वभाव का है, वह ईश्वर को न्यायी या दंड देने वाला मानता है। वह ईश्वर के बारे में अन्य भावना नहीं कर सकता।
इस प्रकार हर एक व्यक्ति अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार ईश्वर का एक-एक रूप मानता है। अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार निर्माण किया हुआ यह रूप ही हमारा इष्ट होता है। हम अपने को ऐसी अवस्था में ले आए हैं, जहां हम ईश्वर का केवल वह रूप देखते हैं, हम उसका अन्य कोई रूप देख ही नहीं सकते। आप कभी-कभी शायद किसी मनुष्य को उपदेश देते हुए सुनकर यह सोचेंगे कि यही उपदेश सर्वश्रेष्ठ है और आपके बिल्कुल अनुकूल है। दूसरे दिन आप अपने एक मित्र को उसके पास जाकर उसका उपदेश सुन आने को कहते हैं और वह यह विचार लेकर लौटता है कि आज तक उसने जितने उपदेश सुने, उनमें वह सबसे निकृष्ट था। उसका ऐसा कहना गलत नहीं है। उसके साथ झगड़ा करना निरर्थक है। उपदेश तो ठीक था, पर उस मनुष्य के उपयुक्त नहीं था।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि सत्य सत्य भी हो सकता है और साथ ही मिथ्या भी। इसमें विरोधाभास तो है, पर याद रहे कि निरपेक्ष सत्य एक ही है, किंतु सापेक्ष सत्य अनेक हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, इस विश्व के संबंध में ही अपनी भावना को लीजिए। यह विश्व एक निरपेक्ष अखंड वस्तु है, जिसमें परिवर्तन नहीं हो सकता और न हुआ है। वह सदा एकरस ही है। पर आप, हम और हर कोई इस विश्व को अलग-अलग देखता व सुनता है। सूर्य को ही लीजिए। सूर्य एक है, पर जब आप, हम और सौ अन्य मनुष्य भिन्न-भिन्न स्थानों पर खड़े होकर सूर्य की ओर देखते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति सूर्य को अलग-अलग देखता है। स्थान में थोड़ा सा अंतर सूर्य के दृश्य को मनुष्य के लिए भिन्न बना देता है। जलवायु में थोड़ा सा हेरफेर हो जाए, तो दृश्य में और भी भिन्नता आ जाएगी। इसी तरह सापेक्ष अनुभवों में सत्य सदा अनेक दिखाई देता है। पर निरपेक्ष सत्य तो एक ही है। अत: यदि दूसरे के धर्म का वर्णन हमारी धर्म की भावना से मेल नहीं खाता हो तो हमें उनसे लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं। हमें स्मरण रखना चाहिए कि परस्पर विपरीत दिखते हुए भी हमारे और उनके दोनों के विचार सत्य हो सकते हैं।
ऐसी करोड़ों त्रिज्याएं हो सकती हैं, जो सूर्य के उसी एक केंद्र में जाकर लीन हो जाती हैं। दो त्रिज्याएं केंद्र से जितनी दूरी पर होंगी, उन दोनों में उतना ही अधिक अंतर होगा, परंतु जब वे केंद्र में जाकर एक साथ मिलेंगी, तब सारा भेद दूर हो जाएगा। ऐसा ही एक केंद्र है, जो मनुष्य मात्र का परम ध्येय है। वह है ईश्वर। हम सब त्रिज्याएं हैं। अपनी प्राकृतिक मर्यादाओं से होकर ही हम ईश्वर के स्वरूप को ग्रहण करते हैं। यही त्रिज्याओं के बीच के अंतर हैं। जब तक हम इस भूमिका पर खड़े हैं, तब तक हममें से प्रत्येक को उस परमतत्व के भिन्न-भिन्न दृश्य दिखाई देते हैं। अत: ये सभी दृश्य सत्य हैं और हमें आपस में झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं। मतभेदों को सुलझाने के लिए उस केंद्र के निकट पहुंचना ही एकमात्र उपाय है। बहस या लड़ाई द्वारा यदि हम अपने मतभेदों को दूर करना चाहें, तो प्रयत्न करने पर भी हम किसी निर्णय पर न पहुंचेंगे। सुलझाने का एक ही मार्ग है -केंद्र की ओर जाना। जितनी जल्दी हम ऐसा करेंगे, उतनी ही जल्दी हमारे मतभेद दूर हो जाएंगे।
Source: http://www.jagran.com/spiritual/sant-saadhak-we-are-all-gods-trijyaan-11368974.html

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

हिंदुओं के रत्न, मुसलमानों के नगीने

सुहेल वहीद
फिल्म उमराव जान के एक सीन में फारुख शेख रेखा के बालों में आहिस्ता-आहिस्ता ऊँगलियाँ फिरा रहे हैं। इस बेहद खूबसूरत और रोमांटिक सीन में रेखा की काली जुल्फों के साथ जिस चीज पर कैमरा फोकस कर रहा है वह फारुख शेख के हाथ की एक ऊँगली में जगमगा रहा नैशापुरी फिरोजा है। लखनऊ में शूटिंग के दौरान नवाब मीर जाफर अब्दुल्ला की ऊँगली से उतरवाकर फिल्म के निर्देशक मुजफ्फर अली ने यह अँगूठी खास तौर पर फारुख शेख को पहनाई थी।
मुजफ्फर अली शिया मुसलमान हैं और कहीं न कहीं वह यह जरूर दिखाना चाहते थे कि शियाओं की एक पहचान फिरोजा रत्न भी है क्योंकि चौथे खलीफा हजरत अली और आठवें इमाम रजा फिरोजे की अँगूठी पहनते थे। ईरान स्थित नौशापुर का फिरोजा सबसे बेहतरीन माना जाता है। इराक के नजफ में हजरत अली के रौजे और ईरान के मशद में इमाम रजा की कब्र से मस (छुआ) कर फिरोजा पहनना शियाओं में सवाब (पुण्य) माना जाता है।
फिरोजे का इस्तेमाल सोने के जेवरों में भी हमेशा से खूब होता आया है। इसकी नीली चमक पीले सोने में खूब फबती है। इसे जवाहरात की श्रेणी में दूसरे नंबर पर रखा गया है। इस पर न तो तेजाब का असर होता है और न आग में पिघलता है। इसे पहनने से दिल के मर्ज में फायदा होता है। तबीयत को राहत और ताजगी बख्शता है। आँखों की रोशनी बढ़ाता है और गुर्दे की पथरी निकालता है। साफ और खुली फिजा में इसका रंग और ज्यादा खिल जाता है।
फिरोजा ही नहींअकीक पहनना भी मुसलमानों में सवाब माना जाता है। मक्का में संगे असवद’ को बोसा (चूमना) देना हज और उमरे की जरूरी रस्म मानी जाती है। हजरत मूसा और हजरत ईसा से पहले हजरत इब्राहीम के जमाने में यह पत्थर आसमान से उतरा। इसी ने हजरत इब्राहीम को रास्ता दिखाया। जहाँ पर गिरा वहीं पर मक्के की बुनियाद रखी गई। यह काला पत्थर अकीक (पुखराज की तरह) की नस्ल का बताया जाता है।
मुसलमानों के सारे फिरकों में अकीक पहनना इसीलिए सवाब माना जाता है। अकीक को मुसलमानों में पवित्र और मजहबी नगीना इसलिए भी माना जाता है पैगंबर मोहम्मद साहब भी अकीक की अँगूठी पहनते थे। यमन का अकीक सबसे महँगा और पवित्र माना जाता है। अकीक एकमात्र रत्न है जो धूप या अन्य किरणों को जज्ब कर जिस्म के अंदर पहुँचाता है। इसे पहनने से दिमाग को ताकत मिलती है और नजर को भी बढ़ाता है।
रहस्यमयी नगीने नीलम को उर्दू में भी नीलम ही कहा जाता है। मुसलमानों में यह शनि का रत्न न होकर जिस्म और आँखों को ताकतपेट के सिस्टम को ठीक कर तबीयत को नर्म करने वाला नगीना है। इसको पहनने से अच्छी आदतें पैदा होती हैं। कमजोर आदमी भी अपने अंदर ताकत महसूस करता है। इसको पहनने वाले पर जादू का असर नहीं होता। प्लेटो ने भी नीलम की तारीफ की है।
हीरे को उर्दू में भी हीरा ही कहते हैं। मुसलमानों में हीरा भी उतना ही लोकप्रिय है जितना हिंदुओं या ईसाइयों में। यह अकेला रत्न है जिसकी कुछ हिंदू अभी भी पूजा करते हैं। पुखराज को उर्दू में भी पुखराज ही कहते हैं। असली पुखराज एकदम पारदर्शी होता है। यह जिस्म में गर्मी और ताकत को बढ़ाता है। इसको पहनने से कोढ़ तक ठीक हो जाता है। खून की खराबी में भी फायदा करता है। जहर को मारता है और बवासीर में भी लाभकारी है। इच्छाशक्ति को तेज करता है और व्यापार की उलझनें दूर करता है। दया भाव पैदा करने के साथ ही परोपकारी और स्वाभिमानी भी बनाता है। हिंदुओं में इसे दाहिने हाथ की ऊँगली में पहना जाता है जबकि मुसलमानों में बाएँ हाथ में।
मुजफ्फरनगर में विष्णुलोक के पंडित विष्णु दत्त शर्मा कहते हैं कि पुखराज चूँकि बहुत महँगा होता है इसलिए भी कुछ लोग अकीक पहनते हैं लेकिन वह इस बात से इनकार करते हैं कि मुसलमानों में नगीनों का इस्तेमाल कम होता है। गोमेद को उर्दू में जरकंद कहते हैं। मुसलमानों में मान्यता है कि इसको पहनने से सामाजिक प्रतिष्ठा में इजाफा होता है और तरक्की भी होती है।
यह पौरुष शक्ति भी बढ़ाता है और गहरी नींद सुलाता है। लकवाग्रस्त व्यक्ति को फायदा पहुँचाता है। लहसुनिया को इंग्लिश में कैट्स आई और उर्दू में यशब कहते हैं। यहूदी इस नगीने का इस्तेमाल सबसे ज्यादा करते हैं। इस्राइल में यह बहुत लोकप्रिय है। पुराने जमाने में इसे गर्भ निरोधक के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। कहा जाता है कि दूध में कुछ देर डालकर वह दूध पिलाने से औरत को गर्भ नहीं ठहरता। इस पर तेजाब का असर नहीं होता।
मोती को उर्दू में मरवारीद कहते हैं। इसका इस्तेमाल जितना पहनने में होता है उतना ही दवा बनाने में। यूनानी दवाओं में खमीरा मरवारीद काफी मशहूर है। इसको पहनने से ईमानदारी पैदा होती है। दिमाग ठंडा रखता है। खसरा और चेचक में बहुत लाभदायक माना जाता है। आँखों की रोशनी बढ़ाने में भी सहायक है। पन्ने को उर्दू में जमुर्रद कहते हैं और तमाम हरे पत्थरों में इसे सबसे बेहतरीन बताया गया है। तोहफा-ए-आलमे शाही’ किताब में लिखा है कि पैगंबर मोहम्मद साहब ने किसी से फरमाया कि जमुर्रद की अँगूठी से तमाम मुश्किलात आसान हो जाती हैं।
हजरत अली कहते थे कि जमुर्रद किसी नागहानी (संकट) का संकेत भी देता है। लेकिन देवबंद फिरके से ताल्लुक रखने वाले मुसलमान इस तरह की बातों के सख्त खिलाफ हैं। उनका कहना है कि एक पत्थर की क्या बिसात कि वह किसी का फायदा या नुकसान करेगा। जो कुछ करेगा अल्लाह करेगा। सीतापुर की एक मस्जिद के इमाम मौलाना नईम अंसारी इस तरह की बातों को शिर्क बताते हैं। कहते हैं कि जरूरी नहीं कि किताबों की हर बात सही ही हो। कौन सी किताब सही है या गलत यह भी देखने की जरूरत है। पन्ने को लेकर चाहें जितने भ्रम हों लेकिन इसकी माँग हर जगह बराबर है।
मुस्लिम औरतें इसे खूब पहनती हैं। खासतौर पर इसका लॉकेट। मिलने-जुलने की प्रवृत्ति पैदा करता है। दिल की बीमारी के अलावा मेदे में ठंडक पैदा कर पाचन क्रिया को सुदृढ़ करता है। पुराने जमाने में महारानियों की रान में बाँधा जाता था जिससे बच्चे की पैदाइश आसान हो जाती थी। किसी भी मुसीबत आने से पहले ही बुरी तरह से चिटक जाता है।
मूँगे को उर्दू में मरजान कहते हैं। कुरान शरीफ में इसके गुणों की चर्चा सूरे रहमान में है। सारे रत्न पहाड़ों की खदानों से निकलते हैं लेकिन मूँगा समुद्र की तलहटी के पत्थरों से चिपटी हुई एक प्रकार की वनस्पति है जो पत्थर के आस-पास शहद के छत्ते की शक्ल की पैदा होती है। माना जाता है कि इसको पहनने से लकवा-फालिज नहीं होता।
शरीर में कंपन की बीमारी नहीं होने देता। लिवर और पाचन क्रिया को सुदृढ़ करता है। दिल की धड़कन को काबू में रखने के अलावा गठिया में भी फायदा पहुँचाता है। इसको धारण करने वाले को आर्थिक तंगी से भी नहीं जूझना पड़ता। हकीम जालीनूस ने लिखा है कि कट जाने पर शरीर से खून न रुक रहा हो तो मूँगे का पाउडर लगाने से तत्काल रुक जाता है।
माणिक को अंग्रेजी में रूबी और उर्दू में याकूत कहते हैं। मशहूर इस्लामी स्कॉलर सैयद इब्राहीम सैफी ने लिखा है कि जब हजरत आदम को जन्नत से निकाला गया तो सबसे पहले उनका पैर श्रीलंका के सेरेनद्वीप पर पड़ा। उनके कदम मुबारक के छूने से याकूत पैदा हुआ। माणिक के प्याले में शराब डालकर पीने से उसकी तेजी और नशा लगभग खत्म हो जाता है।
कुछ मुस्लिम शहंशाहों के बारे में कहा जाता है कि वह याकूत के प्याले में ही शराब पीते थे क्योंकि इस्लाम में शराब नहीं नशे को हराम करार दिया गया है। राजा और शहंशाह इसी के बर्तनों में खाना भी खाते थे क्योंकि माणिक के बर्तन में जहर का असर नहीं होता।
कबूतर की आँख की पुतली में जो सुर्ख रंग होता है उस रंग का माणिक सबसे बेहतरीन माना जाता है। शादियों में इसकी अँगूठी बेहतरीन तोहफा माना जाता है। इसे धारण करने वाला किसी से भी ताल्लुकात बनाने में निपुण हो जाता है। दिमागी फिक्र और परेशानी भी दूर करता है। जिस्म में फुर्ती रहती है। मिर्गीगठिया और प्लेग में फायदा पहुँचाता है। इसकी सबसे खास बात यह है कि यह प्यास की शिद्दत को कम करता है।
मूँगा-मोती अल्लाह का वरदान :
कुरान शरीफ में मूँगा और मोती को अल्लाह की खास नेमतों (वरदान) में शुमार बताया गया है। इसे जन्नत की भी रहमत (आशीर्वाद) बताया गया है। कुरान की सूरे रहमान में आयत नंबर 22 में अल्लाह ने मरजान यानी मूँगे का जिक्र अपनी खास नेमतों में किया है। याकूत यानी माणिक की खूबसूरती और गुणों के बारे में भी सूरे रहमान की आयत नंबर 58 में जिक्र है।
यहूदी लोगों का प्रिय रत्न लहसुनिया और यशब हैं। लहसुनिया को अंग्रेजी में कैट्स आई और यशब को जेड कहते हैं।यह इस्राइल के लोकप्रिय रत्न हैं। यशब का जिक्र बाइबिल में भी आया है। माना जाता है कि यशब पहनने वाले पर दुश्मन का जोर नहीं चलता। जैसपर भी यहूदियों में खूब प्रचलित है। यह जेड की नस्ल का ही मुलायम रत्न है।
यहूदी रब्बी इन्हें इस्तेमाल करते आए हैं। उनके सीने पर जेड और जैसपर की प्लेटें लगी रहती थीं जिन पर उनके धर्म ग्रंथ के उद्धरण दर्ज होते थे। शिया मुसलमानों में भी जेड और जैसपर गले में पहनने का चलन है। शिया इस पर नादे अली और पंजतन पाक नक्श कराकर पहनते हैं।
संगे सुलेमानी अंग्रेजी में अगेट के नाम से मशहूर है। मुसलमानोंयहूदियों और ईसाइयों में इस पत्थर के धार्मिक महत्व को स्वीकार किया गया है।

शनिवार, 17 नवंबर 2012

The Power of Healing Prayers for the Sick by Pastor Jim Feeney, Ph.D.


Sermon SummaryFor centuries, people of faith have offeredprayers for the sick, often with dramatic results. More recently, medical research has shown consistent proof that healing prayersdefinitely have positive results for the sick. But this is nothing new; the Bible taught this 2,000 years ago! Come see Scriptures on healing that can change your life!
Acts 28:8-9 His father was sick in bed, suffering from fever and dysentery. Paul went in to see him and, after PRAYER, placed his hands on him and HEALEDhim. [9] When this had happened, the rest of the sick on the island came and were cured.
•• Praying for the sick and the healing of the sick are linked in the Bible.
•• Today’s sermon is intended to strengthen your faith to seemiraculous spiritual healings as you pray for the sick.
•• Some have wrongly said, Don’t pray for the sick; rather, healthe sick.” This is Scripturally incorrect. See James 5:14-15, quoted next. Prayer for healing the sick is thoroughly biblical and extremelypowerful and effective.
James 5:14-15 Is any one of you sick? He should call the elders of the churchto PRAY over him and anoint him with oil in the name of the Lord. [15] And the prayer offered in faith will make the sick person well; the Lord will raise him up.
•• “Is any one of you sick? — One thing you can do is call theelders for HEALING PRAYER.
• Notice: It’s the “prayer offered in faith that works. Not just wishful prayers for healing, but praying for the sick in faith.
• So my petition to the Lord is that of His disciples: “Lord,INCREASE our faith” (Luke 17:5).
• Then “the Lord will raise him up.” Don’t try to carry the whole burden yourself. You can’t. The Lord heals! Jesus still heals today! And He often does it in response toprayers for healing. Never underestimate the miraculoushealing power of prayer!
Matthew 8:16-17 When evening came, many who were demon-possessed were brought to him, and he drove out the spirits with a word and HEALED ALL the sick. [17] This was to fulfill what was spoken through the prophet Isaiah: “HEtook up our infirmities and carried our diseases.”
•• Remember: Jesus “healed ALL the sick.” There is nothing too difficult for him. For the Son of God there are no “hard cases”!
•• As you pray for the sick, remember that Jesus already “TOOK up our infirmities and carried our diseases.” Note the verb tense —took. It’s DONE!
Mark 1:40-41 A man with leprosy came to him and begged him on his knees, “If you are willing, you can make me clean.” [41] Filled with compassion, Jesus reached out his hand and touched the man. “I AM WILLING,” he said. “Be clean!”
•• Don’t pray the leper’s prayer — “IF you are willing.”
• Rather, pray Jesus’ response — “I AM WILLING!”
•• And notice the motive. Jesus was “filled with compassion.”
• Let God “burden” your heart to pray for the sick.
• And, may I add, if you are coming forward at the close of the church service to pray for the sick, don’t come up to pray blindly. Let God lead you. He may give you a specific measure of faith to offer effective healing prayers for a specific person.
Matthew 4:24 News about him spread all over Syria, and people brought to him all who were ill with various diseases, those suffering severe pain, the demon-possessed, those having seizures, and the paralyzed, and he healed them.
•• Don’t limit what you pray for. Don’t be intimidated by theseverity of the illness.
• Jesus healed (and still heals) those with “severe pain.”
• Jesus healed (and still heals) the “paralyzed.”
• Jesus healed (and still heals) those with “various diseases.”
Mark 16:17-18 And these signs will accompany those WHO BELIEVE: In my name they will drive out demons; they will speak in new tongues; [18] they will pick up snakes with their hands; and when they drink deadly poison, it will not hurt them at all; they will place their hands on sick people, and they will get well.”
•• It’s not only Jesus who was involved in healing the sick.
•• Divine, spiritual healing is a ministry promised to “those who BELIEVE.”
• Ask God to MAKE YOU one of those faith-filled people offering prayers for the sick that result in divine healings.
• Pray with the expectation that “... [the sickWILLget well.” Be confident in the healing power of prayers offered in faith.
Acts 14:9-10 He listened to Paul as he was speaking. Paul looked directly at him, saw that he had FAITH TO BE HEALED [10] and called out, “Stand up on your feet!” At that, the man jumped up and began to walk.
•• Faith works at both ends of the equation.
• YOU must pray the “prayer of faith for healing.
• The RECIPIENT of healing prayer must be encouraged to believe God for the desired healing.
• Paul discerned faith in the crippled man, and this led to the man’s immediate healing.
• And may I add here that the great majorityof healings in Scripture were immediatehealings.
• Matthew 9:28-29 “...the blind men came to him, and he asked them, “Do YOU BELIEVE that I am able to do this?” “YES, Lord,” they replied. [29] Then he touched their eyes and said, “According to YOUR FAITH will it be done to you.” And they were healed!
•• In sum, you pray for the sick in faith, and encourage therecipient of the healing prayers to believe, to receive in faith from the Lord.
Acts 3:2, 6, 16 Now a man crippled from birth was being carried to the temple gate called Beautiful, where he was put every day to beg from those going into the temple courts.... [6] Then Peter said, “Silver or gold I do not have, butWHAT I HAVE I GIVE YOU. In the name of Jesus Christ of Nazareth, walk.” ...[16] BY FAITH IN THE NAME OF JESUS, this man whom you see and know was made strong. It is Jesus’ name and the faith that comes through him that has given this COMPLETE healing to him, as you can all see.
•• As you offer healing prayers for the sick, remember that you“HAVE” something wonderful to give:
• the Name of the Lord Jesus Christ to use in faith
• the indwelling presence of the Holy Spirit to empower your prayers for healing.
•• Expect “COMPLETE healing.”
•• And expect it to come BY FAITH in the name of Jesus.” EXPECTit to come!
3 John 2 Dear friend, I PRAY that you may ENJOY GOOD HEALTH and that all may go well with you, even as your soul is getting along well.
•• Finally, don’t forget ongoing prayers for healing and health at a distance.
• My wife and I pray nightly for our children’s HEALTH. Three of our four children are grown up and live elsewhere, but we still pray for them at a distance and believe God to hear these healing prayers.
In sum, the Bible consistenly teaches and illustrates the power of prayer, including healing prayers for the sick. Believe God. Step forth in faith. Offerhealing prayer for the sick at every opportunityGod is faithful,” and you will be blessed and amazed at the power and the graciousness of God as you see thesick get well in response to your prayers offered in faith.
Preached at South Valley Church, Phoenix, Oregon, August 31, 2002
Source: http://www.jimfeeney.org/powerofhealingprayers.html

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

प्रगति का लक्षण -श्री आनन्दमूर्ति

Source : http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-story-57-62-242306.htmlबाधा को लांघकर आगे बढ़ने की चेष्टा करना जीवों का स्वाभाविक धर्म है। ऐसी बात नहीं है कि यह मनुष्य की ही विशेषता है। किंतु यह जो बंधनों से जुड़ी बाधाएं हैं, इन पर जीत हासिल करने के लिए केवल शारीरिक शक्ति काफी नहीं है, इसके लिए मानसिक व आध्यात्मिक शक्ति की भी जरूरत है। पशुओं में शारीरिक शक्ति बहुत रहते हुए भी वे मानसिक शक्ति के अभाव के कारण बहुत दूर तक आगे बढ़ नहीं पाते। और आध्यात्मिक शक्ति के नाम पर तो उनके पास कुछ है ही नहीं। मान लीजिए, एक बाधा आई। पशु शक्ति द्वारा उस बाधा को पार करना चाहेगा। मनुष्य चिंतन करेगा, सोचेगा, बुद्धि की सहायता से कोई नया उपाय निकालकर बाधा को लांघकर चला जाएगा।
यह स्मरण रखना होगा कि यह जो बाधा है, इससे भी बड़ी बाधा है- मानसिक, आध्यात्मिक। किंतु मानसिक क्षेत्र में मनुष्य की मुख्य बाधा है अंधविश्वास। मनुष्य बड़ा होकर, लिखना-पढ़ना सीखकर भी इसके बंधन से मुक्त नहीं हो पाता। वह अक्सर असहाय होकर उसके सामने आत्मसमर्पण करता है। मैं जानता, समझता हूं अलग चीज है और करता हूं अलग तरह का काम। क्यों दूसरी तरह का काम करता हूं? क्योंकि उसका विरोध करने लायक मानसिक साहस नहीं है। हम समझ जाते हैं कि अमुक रोग होने पर अमुक दवा उचित है। करते भी ऐसा ही हैं, किंतु भय भी है। इसलिए हम विशेष देवी-देवता की छिप-छिपकर पूजा भी करते हैं। यह एक भारी दुर्बलता है। इस दुर्बलता को अंग्रेजी में कहते हैं डॉग्मा।इसके बाद अंतिम बाधा है आध्यात्मिक जगत की बाधा। इस बाधा के खिलाफ जोरदार जंग छेड़ने की आवश्यकता है। इसके लिए जरूरी है कि दुनिया भर के लोगों में भागवत को प्रतिष्ठापित किया जाए, तभी आध्यात्मिक बाधाएं दूर हो सकेंगी। इन बाधाओं के दूर होने पर ही मनुष्य परम मुक्ति की राह पर जा सकेगा। यही है मनुष्य की प्रगति का लक्षण।

शनिवार, 24 मार्च 2012

अब्राहम के वंशज हैं भारत के ब्राह्मण ?

Reflections on the Descendants of Abraham
Parsha Chayei Sarah, 2006


To the sons of his concubines Abraham gave gifts, while he was still alive, and he sent them away from his son Isaac eastward, to the land of the East (Genesis 25:6)

The Zohar gives us an indication about the attraction and the danger of encountering the wisdom of the “children of the East”.  “Rabbi Abba said, ‘One day I happened upon a certain town formerly inhabited by children of the East, and they told me some of the wisdom they knew from ancient days.’” (1:99b)  The Zohar continues to quote R. Abba, “My children, this is close to words of Torah, but you should shun these books so that [100b] your hearts will not stray after these rites, toward all of those sides mentioned here; lest – Heaven forbid – you stray from the rite of the blessed Holy One!  For all these books deceive human beings, since Abraham, who bestowed it upon the sons of the concubines, as is written: To the sons of his concubines Abraham gave gifts, while he was still alive, and he sent them away from his son Isaac eastward, to the land of the East (Genesis 25:6)  Afterward they were drawn by that wisdom in various directions.  (Pritzker Edition. V.2, P. 123.

The relationship between the traditions of the East and the Jewish tradition seem to be hinted at by this reference to the children of Abraham’s wife, Keturah, whom he married after the death of Sarah.  The phonetic similarity between the word denoting the unity of all reality “Brahman” and the name “Abraham” seem to suggest a similar theme, especially since the accepted view is that the Vedic or Hindu tradition was brought to the Indian subcontinent from the West – Iran or West Asia – about 3,000 years ago.

Perhaps the words of Torah made their way East with these children of Abraham, just as most of the Jews spent two millennia living in the West.  In each environment the basic notions of Torah may have experienced certain drift, and I would like to review some basic concepts of Torah thought as they appear in the East and in the West, with the purpose of clarifying the essential Torah concepts. 

I would like to focus on three notions:  Olam, Ehad, and Shalom. 

The Hebrew word “olam” is translated as “forever”, or the “world”, as in “melech ha’olam” which could be translated as “ruler of the world”.  We also say in the Shema, “malchuto l’olam va’ed”,  which we usually translate as “His kindom is forever”.  However, the root from which the word olam derives is elam which means hidden or concealed. 

The Bahir, one of the primary sources of Jewish mystical thought, is traditionally ascribed to Rabbi Nehuniah ben HaKana, a Talmudic sage of the first century.  Although the text was not widely circulated, it was apparently known by some before the year 1000.  A history of the text can be found in the translation and commentary by Aryeh Kaplan, published in 1995.   The 10th numbered paragraph of the Bahir asks, “’What is the meaning of Me-Olam?’ This means that it must be concealed (He-elam) from the world.  It is thus written (Kohelet 3:11), “He has also placed the world (Ha’Olam) in their hearts [that they should not find out the work that God has done from the beginning to the end].”  In other words, the world is called “Olam” because there is something about the world that is essentially hidden. 

In the Vedic tradition, there is a similar concept called “Maya”.  The concept is similar to the idea that the world is essentially an illusion.  Maya is the veil that covers our real nature and the real nature of the world around us. Maya is fundamentally inscrutable: we don't know why it exists and we don't know when it began. What we do know is that, like any form of ignorance, maya ceases to exist at the dawn of knowledge, the knowledge of our own divine nature.

Here is the concept as expressed by Rabindranath Tagore in his collection of songs, Gitanjali:

That I should make much of myself and turn it on all sides,
thus casting colored shadows on thy radiance
---such is thy Maya.

Thou settest a barrier in thine own being
and then callest thy severed self in myriad notes.
This thy self-separation has taken body in me.

The poignant song is echoed through all the sky in many-colored tears
and smiles, alarms and hopes; waves rise up and sink again,
dreams break and form.
In me is thy own defeat of self.

This screen that thou hast raised is painted with innumerable figures
with the brush of the night and the day.
Behind it thy seat is woven in wondrous mysteries of curves,
casting away all barren lines of straightness.

The great pageant of thee and me has overspread the sky.
With the tune of thee and me all the air is vibrant,
and all ages pass with the hiding and seeking of thee and me.


            If this is what happened to the notion of Olam when it traveled eastward, what happened in the west?  Olam became either “world” or “eternity”.  “World” has the connotation of the entire creation, as God is the King of the entire created world, but it misses the sense of the inherent hiddenness of the Creator.  “King of the Universe” is easily said, easy to handle, but it misses some of the majesty of  “all ages pass with the hiding and seeking of thee and me.” 

Now let’s look at Ehad, the special kind of oneness that pertains to God.  

In the Vedic tradition, the concept of the essential oneness of the universe is given a very strong meaning.  This time I am going to quote from sources that I do not claim to grasp.  Nevertheless, I hope they will give a sense of the strong sense of unity that pervades the Eastern (Vedic) tradition:

“All fear and all misery arise from our sense of separation from the great cosmic unity, the web of being that enfolds us. ‘There is fear from the second,’ says the Brihadaranyaka Upanishad. Duality, our sense of separation from the rest of creation, is always a misperception since it implies that something exists other than God. There can be no other. ‘This grand preaching, the oneness of things, making us one with everything that exists, is the great lesson to learn,’ said Swami Vivekananda a century ago.

. . . . The Self is the essence of this universe, the essence of all souls . . . You are one with this universe. He who says he is different from others, even by a hair's breadth, immediately becomes miserable. Happiness belongs to him who knows this oneness, who knows he is one with this universe.”    http://www.vedanta.org/wiv/philosophy/oneness.html

In the strongest case, the Hindu or Vedic position asserts that everything, the Creator as well as creation is a unified Divine Ground called Brahman.  This position could be called Monism, and invites us to contemplate a unity from which there is no exception or alternative except for mere illusion.

In the West, the Torah of Oneness has taken a quite different path.  For some, Hashem Echad  seems to mean simply that there is only one god.  Some laud the Jewish tradition as being the pioneers of monotheism, the idea of one god.  However, this is a pale interpretation of the Oneness that is applied to HaShem, as is evident in the versification of Rambam’s attributes of G’d by Shlomo Ibn Gvirol, in the song we know as “Yigdal”.  Ehad v’ayn yahid k’yichudo, n’elam v’gam ayn sof l’achduto.   [G’d is] One and there is no Unity that resembles his Unity, it is hidden and there is no limit to his Oneness”.  This sounds closer to the Eastern elaboration than to mere monotheism. 

A second Western interpretation of G’d’s Unity is a kind of pantheism, the doctrine that for all practical purposes, G’d is merely the sum of all of creation including the rules by which it operates.  The unity of this god, is merely the unity inherent in the created world.

Another variation on a weakened Oneness is the Deist position.  Deism does away with the duality by neglecting the Creator, or at least His involvement with current events.  This has been an attractive position for Western rationalists, but a serious crippling of the notion of Oneness inherent in the traditional Torah view. 

The Oneness of the Torah tradition is not quite so absolute as the Vedic unity that subsumes all of existence into the Brahman Unity.  However, it is certainly much a much stronger sense of unity than mere monotheism, Pantheism or Deism usually suggests. 

As usual, the Torah view is comfortable with the paradox.  God is Unity, HaShem Ehad, and the Creator is distinct from His Creation.  Again, permit me to quote from Gitanjali because Tagore’s paradoxical dualism is so close to the Torah view:

When I bring to you colored toys, my child,
I understand why there is such a play of colors on clouds, on water,
and why flowers are painted in tints
---when I give colored toys to you, my child.
When I sing to make you dance
I truly now why there is music in leaves,
and why waves send their chorus of voices to the heart of the listening earth
---when I sing to make you dance.

When I bring sweet things to your greedy hands
I know why there is honey in the cup of the flowers
and why fruits are secretly filled with sweet juice
---when I bring sweet things to your greedy hands.

When I kiss your face to make you smile, my darling,
I surely understand what pleasure streams from the sky in morning light,
and what delight that is that is which the summer breeze brings to my body
---when I kiss you to make you smile.

The final concept that shows a divided path between East and West is the idea of shalom.  In English translation, shalom has been virtually equated to the English word “peace”.  However, this is an artifact of the westernizing of Torah concepts.  Of course, the long interlude of Jewish life in Christian Europe has brought even Hebrew speakers to think of shalom as meaning peace. 

However, if we look at the root words associated with shin-lamed-mem, they relate to a different family of concepts.  M’shalem means to pay or repay.  Shlemut means wholeness or completion.  Shalem means complete, full, entire or perfect.  In contrast, “peace” comes from the Latin “pax”, which shows up in English as “pact”, a truce between warring parties, and hence “peace”.  Peace is better translated into Hebrew as “shalva”, tranquility or quiet.  When shalom went West, it was misconstrued as peace. 

What happened when shalom went East?  It became a perfect sense of ethical payment, a kind of reliable mechanics of the moral universe, a cosmic “what goes around comes around”.  In the Vedic tradition, this equates to the concept of karma.  Shalom is karma, as simple as that. 

It is interesting to try to retranslate many of the familiar uses of shalom out of the Western bias, and through the more Eastern prism.  For example, oseh shalom b’mromav, who makes perfect repayment in his heights, may repayment be evident down here as well; sim shalom, tova, u’vracha, assign appropriate consequences, goodness and blessing.  The goal we seek in shalom is not comfortable tranquility, but a fairness in the realm of moral outcomes. 

The search for moral fairness de-emphasizes traits that are associated with divine intervention in the Christian and Islamic worldviews.  Jews are less pre-occupied with forgiveness, divine wiping away of our sins, or intervention by a powerful intermediary – such as Jesus or Mohammed.  The Torah suggests that creation is grounded in a robust moral physics, where punishment and reward are less fundamental than the actual consequences of our moral choices. 

There is an insightful commentary by the RAMBAN on Lech Lecha 15:2 where the text reads, “And Abram said, O Lord Eternal, what will you give me?”  Ramban comments, “It had not occurred to Abraham that this great reward would be in the World to Come for there is no necessity for such a promise; every servant of G’d will find life in the hereafter before him.”  (Chavel, Tr. p. 194).  The lesson seems to be that in the Torah view, it simply does not make sense to pray for a better outcome in the World to Come.  That is a mechanical, automatic result.  We get shalom, not peace (as the Western influence would lead us to believe), but perfect repayment.  In other words, the western influence on the notion of shalom has led to a notion that it would make sense to pray for a different outcome of our life than we deserve.  Is this not what has resulted in the elevation of the images of Jesus and Mohammed to the level of intermediaries with a god that can be influenced by such intervention.  This is a concept that is foreign to the Torah view.

All of this has an interesting corollary in the notion of the recycling of souls.  The notion of reincarnation is well established in the Hindu tradition.  For example, in the Badgavad Gita, Lord Krishna observes,

Just as the self advances through childhood, youth and old age in its physical body, so it advances to another body after death. The wise person is not confused by this change called death (2,13). Just as the body casts off worn out clothes and puts on new ones, so the infinite, immortal self casts off worn out bodies and enters into new ones (2,22).
In the Vedic or Hindu tradition, this notion of recycling of souls corresponds to the idea of “karma”,  a robust, reliable moral physics that tracks the course of the moral actor even beyond death. 
In contrast, both Christianity and Islam reject the idea of the recycling of souls.  In the New Testament, there are some passages that indicate that upon death there is a final judgment and eternal consequences. 

According to the New Testament, "It is appointed unto man once to die, and after that the judgment" (Hebrews 9:27). God's judgment is described in Revelation 21:8, "But the cowardly, unbelieving, abominable, murderers, sexually immoral, sorcerers, idolaters and all liars shall have their part in the lake which burns with fire and brimstone, which is the second death."

"And the smoke of their torment ascends forever and ever; and they have no rest, day or night, who worship the beast and its image, and whoever receives the mark of his name." (Revelation 14:11).

In Islam, passages from Koran and Hadith are similar, equally one dimensional and harsh.  The Talmud also has passages that suggest that the punishment for wrongdoing may be severe, but on the whole the concept is of a much more multi-dimensional moral calculus.

This view of one terrifying chance, which can only be mitigated by pleading with the intermediary, could be called the Western perspective; it permits no recycling of souls.  That would sound like a second chance, and undermine the reliance on the intermediary who has exclusive power to intervene and ask for a lighter sentence, or for a reversal of the judgment altogether.  In the Western traditions, the judgment that follows life is final, and the only way around an eternally bad outcome is to ask for the mercy of God and forgiveness of sins.

In the Vedic tradition, the other side of the coin of karma is the recycling of souls.  Karma entails a moral physics that governs the world; each person bears the consequences of his moral action. 

By the Middle Ages, especially in the more mystical texts, it was evident that the notion of recycled souls was compatible with the Jewish notion of justice in the created world.  Just outcomes are not always apparent within a person’s lifetime.  The Torah notion of afterlife, including the recycling of souls, is only implied in the written text of the Torah.  The notion of a perfect system of justice is elaborated in the Talmud, and the notion of recycled souls is spelled out in the writings of Isaac Luria and in the Zohar.

These three concepts – Olam, Ehad and Shalom show us that it may be important for us to carefully redeem from the East some of the wisdom that was sent by Abraham with the children of Ketura, the wife he took after the death of Sarah.  The Torah concepts may not be identical with the concepts of the Vedas and the Unpanishads, the Badgavad Gita or even Gitanjali.  However, looking at the worldview of the East may save us from thinking that Olam is merely the universe, that Ehad means that we have only one God, and that Shalom means that we are primarily concerned with our search for peace.

Thank you.
Bruce Heitler