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शनिवार, 7 जून 2014

हम सब ईश्वर की त्रिज्याएं हैं-स्वामी विवेकानंद

हम सब ईश्वर की त्रिज्याएं हैं
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि सत्य तो एक ही है, बस हम उसे अपने-अपने नजरिये से भिन्न बना देते हैं। यह बात यदि हमारी समझ में आ जाए, तो सारे मतभेद ही सुलझ जाएं। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..
वर्तमान अतीत का ही फल है। इस कारण हममें से प्रत्येक की एक विशेष गति, एक विशेष प्रवृत्ति होती है और इसीलिए प्रत्येक को अपना मार्ग स्वयं निर्धारित करना पड़ता है। यह मार्ग या तरीका, जो हमारी प्रवृत्ति के अनुकूल है, हमारा 'इष्ट मार्ग' कहलाता है। यही इष्ट का तत्व है। जो मार्ग हमारा है, उसे ही हम अपना 'इष्ट' कहते हैं।
उदाहरणार्थ, किसी मनुष्य की ईश्वर के प्रति यह धारणा है कि वह विश्व का सर्वशक्तिमान शासक है। संभवत: उस मनुष्य की प्रकृति उसी प्रकार की है। वह एक अहंकारी मनुष्य है और सब पर शासन करना चाहता है। अत: वह स्वभावत: ईश्वर को सर्वशक्ति संपन्न शासक मानता है। दूसरा मनुष्य, जो शायद स्कूल मास्टर है और कठोर स्वभाव का है, वह ईश्वर को न्यायी या दंड देने वाला मानता है। वह ईश्वर के बारे में अन्य भावना नहीं कर सकता।
इस प्रकार हर एक व्यक्ति अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार ईश्वर का एक-एक रूप मानता है। अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार निर्माण किया हुआ यह रूप ही हमारा इष्ट होता है। हम अपने को ऐसी अवस्था में ले आए हैं, जहां हम ईश्वर का केवल वह रूप देखते हैं, हम उसका अन्य कोई रूप देख ही नहीं सकते। आप कभी-कभी शायद किसी मनुष्य को उपदेश देते हुए सुनकर यह सोचेंगे कि यही उपदेश सर्वश्रेष्ठ है और आपके बिल्कुल अनुकूल है। दूसरे दिन आप अपने एक मित्र को उसके पास जाकर उसका उपदेश सुन आने को कहते हैं और वह यह विचार लेकर लौटता है कि आज तक उसने जितने उपदेश सुने, उनमें वह सबसे निकृष्ट था। उसका ऐसा कहना गलत नहीं है। उसके साथ झगड़ा करना निरर्थक है। उपदेश तो ठीक था, पर उस मनुष्य के उपयुक्त नहीं था।
हमें यह समझ लेना चाहिए कि सत्य सत्य भी हो सकता है और साथ ही मिथ्या भी। इसमें विरोधाभास तो है, पर याद रहे कि निरपेक्ष सत्य एक ही है, किंतु सापेक्ष सत्य अनेक हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, इस विश्व के संबंध में ही अपनी भावना को लीजिए। यह विश्व एक निरपेक्ष अखंड वस्तु है, जिसमें परिवर्तन नहीं हो सकता और न हुआ है। वह सदा एकरस ही है। पर आप, हम और हर कोई इस विश्व को अलग-अलग देखता व सुनता है। सूर्य को ही लीजिए। सूर्य एक है, पर जब आप, हम और सौ अन्य मनुष्य भिन्न-भिन्न स्थानों पर खड़े होकर सूर्य की ओर देखते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति सूर्य को अलग-अलग देखता है। स्थान में थोड़ा सा अंतर सूर्य के दृश्य को मनुष्य के लिए भिन्न बना देता है। जलवायु में थोड़ा सा हेरफेर हो जाए, तो दृश्य में और भी भिन्नता आ जाएगी। इसी तरह सापेक्ष अनुभवों में सत्य सदा अनेक दिखाई देता है। पर निरपेक्ष सत्य तो एक ही है। अत: यदि दूसरे के धर्म का वर्णन हमारी धर्म की भावना से मेल नहीं खाता हो तो हमें उनसे लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं। हमें स्मरण रखना चाहिए कि परस्पर विपरीत दिखते हुए भी हमारे और उनके दोनों के विचार सत्य हो सकते हैं।
ऐसी करोड़ों त्रिज्याएं हो सकती हैं, जो सूर्य के उसी एक केंद्र में जाकर लीन हो जाती हैं। दो त्रिज्याएं केंद्र से जितनी दूरी पर होंगी, उन दोनों में उतना ही अधिक अंतर होगा, परंतु जब वे केंद्र में जाकर एक साथ मिलेंगी, तब सारा भेद दूर हो जाएगा। ऐसा ही एक केंद्र है, जो मनुष्य मात्र का परम ध्येय है। वह है ईश्वर। हम सब त्रिज्याएं हैं। अपनी प्राकृतिक मर्यादाओं से होकर ही हम ईश्वर के स्वरूप को ग्रहण करते हैं। यही त्रिज्याओं के बीच के अंतर हैं। जब तक हम इस भूमिका पर खड़े हैं, तब तक हममें से प्रत्येक को उस परमतत्व के भिन्न-भिन्न दृश्य दिखाई देते हैं। अत: ये सभी दृश्य सत्य हैं और हमें आपस में झगड़ा करने की आवश्यकता नहीं। मतभेदों को सुलझाने के लिए उस केंद्र के निकट पहुंचना ही एकमात्र उपाय है। बहस या लड़ाई द्वारा यदि हम अपने मतभेदों को दूर करना चाहें, तो प्रयत्न करने पर भी हम किसी निर्णय पर न पहुंचेंगे। सुलझाने का एक ही मार्ग है -केंद्र की ओर जाना। जितनी जल्दी हम ऐसा करेंगे, उतनी ही जल्दी हमारे मतभेद दूर हो जाएंगे।
Source: http://www.jagran.com/spiritual/sant-saadhak-we-are-all-gods-trijyaan-11368974.html

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-06-2014) को ""मृगतृष्णा" (चर्चा मंच-1637) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-06-2014) को ""मृगतृष्णा" (चर्चा मंच-1637) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक